Tuesday, August 5, 2014

रावणा राजपूत क्या है व इसके पीछे क्या अवधारणा है ?


रावणा राजपूत वो क्षत्रिय है जो सामंत काल में भूमि ना रहने से पर्दा क़ायम न रख सके और अन्य राजपूत जो शासक व जमीदार या जागीरदार थे ने इन्हें निम्न दृष्टि से देख इनपर सामाजिक एवं शारीरिक अत्याचार किये तथा इन पर विभिन्न प्रथाओं को क़ायम कर इनका  सामाजिक शोषण किया।

प्राचीनतम आर्य संस्कृति के क्षत्रिय वर्ण का मुख्य दायित्व सुरक्षा एवं शासन करना था। सुरक्षा की दृष्टि से शत्रुओं से युद्ध करके राज्य के अस्तित्व को बनाये रखना और प्रजा की रक्षा करना  तथा शासन की दृष्टि से प्रजा की सेवा करना क्षत्रियों का परम कर्तव्य था।  ये ही क्षत्रिय वर्ण के लोग अनगिनत जातियों में विभक्त हो गए। राजपूत जाति उनमें से एक है। आर्य संस्कृति के चारों वर्ण जब भिन्न भिन्न जातियों में विभाजित होने लगे, तब हिन्दू संस्कृति का  प्रादुर्भाव हुआ।  आज जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म के प्रमुख लक्षणों में से एक महत्वपूर्ण लक्षण है। जिसमे ऊँच-नीच छूत अछूत जैसी बुराईयाँ व्याप्त है।  कालांतर में राजपूत जाती में भी अनेक जातियां  निकली। उस व्यवस्था में रावणा राजपूत नाम की जाति राजपूत जाति में से निकलने वाली अंतिम जाती है, जिसकी पहचान के पूर्वनाम दरोगा, हजुरी वज़ीर     आदि पदसूचक नाम है। राजपूत जाति से अलग पहचाने जाने वाली इस जाति प्रारंभिक काल मुग़ल शासन है।  भारत में अंग्रेजी शासन के उस काल में जबकि अनेक समाज सुधार आंदोलन चल रहे थे और देश में स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस का आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा था, तब बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में आर्य समाज की विचारधारा और कार्यकलापों से ओतप्रोत इस जाति के बुद्धिजीवी वर्ग में अरबी और फ़ारसी भाषा के शब्दों से निज जाति की पहचान कराने वाले उपरोक्त जातिसूचक नामों को नकार दिया था और विशुद्ध हिंदी भाषा रावणा राजपूत नाम से इस जाति पहचान कराने का अभियान शुरू कर दिया था।  रावणा शब्द का अर्थ राव+वर्ण से है अर्थात योद्धा जाति यानी की राजाओं व सामंतों के शासन की सुरक्षा करने वाली एकमात्र जाति जिसे रावणा राजपूत नाम से जाना जाए। इस नाम की शुरुआत तत्कालीन मारवाड़ की रियासत के रीजेंट सर प्रताप सिंह राय बहादुर के संरक्षण में जोधपुर नगर के पुरबियों के बॉस में सन १९१२ में हुई है।  जिस समय इस जाति के अनेकानेक लोग मारवाड़ रियासत के रीजेंट के शासन और प्रशासन में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभा रहे थे।

स्मरण रहे की सर प्रताप सिंह राय बहादुर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती से बहुत प्रभावित थे और आर्य समाज जोधपुर के प्रथम संस्थापक प्रधान थे।  आज यह नवसृजित नाम मारवाड़ की सीमाओं को लांग कर राजस्थान के अनेक ज़िलों में प्रचलित है जिसकी व्यापकता की दृष्टि से काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग ने भी पुष्टि की है। और केंद्र तथा राज्य सरकार ने भी अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचि में सम्मिलित किया है।  इस नाम से इस जाति की नयी पुरानी पहचान छुपी हुई है।  सच माने में यह जाति शैक्षणिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक, आर्थिक और राजनितिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ी हुई जाति है।

विशेष टिप्पणी : रावणा राजपूत कहे जाने वाली इस जाती व अन्य पिछड़ी jaatiyon को दास प्रथा से मुक्त कराने में मारवाड़ के महाराजाधिराज श्री सर जसवंत सिंह जी साहब ने विक्रम संवत १९४० (सन १८८७ ई.) के क़रीब मारवाड़ का क़ानून बनवाकर 'वशी प्रथा' व 'दास प्रथा' दोनों का अंत किया जिसके बाद सामंतवादी क्षत्रियों ने वापस समय पाकर इन प्रथाओं को दुसरे रूप में सन १९१६ ई. में हरा-भरा करने का प्रयास किया।  जिसे वापस हमारे श्री सर उम्मैद सिंह जी साहब बहादुर ने सन १९२१ ई. में नोटिफिकेशन नं. ११९३९ तारीख २१--४-१९२६ के द्धारा समूल रद्द कर अपनी दीं प्रजा को सामंतवादी जमीदारों से मुक्त किया।

वि. स. १९४३ ई. और सन. १८८७ ई. पूर्व फौज में पुरबिये, सिख, जाट और देसी मुसलमान आदि ही भर्ती किये जाते थे।  राजपूतों की भर्ती किंचित मात्र ही थी।  लेकिन सं. १८८९ में मारवाड़ नरेश ने राजपूतों की माली हालत को समझते हुए एक फरमान निकला की आइंदा सरकारी फौज में देसी राजपूत ही भर्ती किये जाएँ।  सं. १८१८ ई. से इस हुक्म की तामिल शुरू हुई। सरदार रिसाला और इंफेक्ट्री की नवीन भर्ती शुरू हुई जिसमे राजपूत व भूमिहीन राजपूत ( पिछड़े ) दोनों को योग्यतानुसार सामान पदों पर भर्ती किया गया।

विश्लेषण : उक्त परिभाषाओं व उदाहरणों तथा संक्षिप्त लेखों व सवालों के जवाब को पढ़कर मानसिक मंथन करने के बाद साफ़ सुथरा सार निकालके आता है जो संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत है -

समय और परिस्थितियों के आधार पर रावणा राजपूत जाति के साथ सामन्तवादियों व अंग्रेजों ने कई ज़ुल्म किये। इनके अत्याचार के तरीके नये-नये कानूनों व प्रथाओं की आड़ से निकलकर आते और असहाय प्रजा पर कहर बनकर टूटते। इस महामारी रुपी शोषण को अशिक्षा व गरीबी ने बढ़ावा दिया। लेकिन समय ने अपनी गति को नयी दिशा दी और समझदार राजाओं का इन अत्याचारों पर ध्यान गया और उन्होंने देर से ही सही पर सुध ली।  शिक्षा का प्रसार हुआ लोगों में सामाजिक जन चेतना आयी पहले अपने को बदला फिर समाज को नयी दिशा दी आज रावणा राजपूत समाज सम्पूर्ण राजस्थान में श्री वीरेन्द्र सिंह रावणा के नेतृत्व में एक बैनर के निचे इकठ्ठा हो गया इससे पहले यह समाज राजस्थान के प्रत्येक कोने में अलग-अलग उपनामों व भ्रांतियों से लिपटा अलग-थलग पड़ा था। आज यह समाज "अखिल राजस्थान रावणा राजपूत महासभा" के नाम से सम्पूर्ण रूप से जागृत हो चूका है, जो भविष्य में राज्य की सामाजिक व राजनितिक दिशा तय करेगा।  

जाति कहाँ से बनती है ?


जाति प्रथा जब से प्रारम्भ हुई है तब से जाति 'वीर्य' से ही मानी जाती रही है।  क्षत्रिय राजाओं और ब्राह्मण ऋषि मुनियों के समय समय पर कामात्तुर होकर किसी भी वर्ण (जाति) की स्त्री से कामाग्नि को शांत करने के अभिप्राय से विषय भोग किया और उस स्त्री से जो संतान उत्पन्न हुई, वह क्षत्रिय तथा ब्राह्मण ही मानी गयी जिन्हें शुद्ध जाति या वंश का माना जाता था।
 
  मर्दुमशुमारी रिपोर्ट १८९१ ई. में 'राजपूत की जाति जमीन से है' यानि के किसी भी भूमिहीन राजपूत (दरोगा , वजीर, हजुरी, गोला, चाकर, सेंसस रिपोर्ट के अनुसार ) के पास जमीन होने से उसे राजपूत मान लिया जाता है।
   
उदहारण : महाभारत आदि पर्व १०० अध्याय से १०६ अध्याय तक देखिये गंधवती (सत्यवती) के विषय में लिखा है की यह एक दास कन्या थी व रूपवती भी थी यह नांव चलाने का कार्य करती थी।  एक समय ऋषि पराशर उसकी नांव में बैठे और उनसे मोहित होकर कामात्तुर हो गए। 
इस दशा में उन्होंने नांव में ही उससे सम्भोग कर अपनी कामाग्नि को शांत किया।  इस संयोग से गंधवती गर्भवती हुई टाटा अपने गर्भ से महान ऋषि वेदव्यास को जन्म दिया जो ब्राह्मण कहलाये।  यही गंधवती भीष्म पितामह की प्रेरणा से राजा शांतनु की रानी बनी व दो पुत्रों विचित्रवीर्य व चित्रांगद को जन्म दिया जो शुद्ध क्षत्रिय (राजपूत) कहलाये। 
विश्लेषण : उक्त उदहारण से ज्ञात होता है की स्त्री किसी जाति या समुदाय की हो उसके पुत्रों की जाति पुरुषों से ही निर्धारित होती है।  स्त्री की जाति पहले से निश्चित नहीं होती अर्थात भविष्य   में उसका कौन वर होगा किस जाति का होगा। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह एक असहाय स्त्री का शोषण मात्र है जिसे प्रोत्साहित करके उपयोग में लाया गया। 
 
वशी यानी चोटी कट प्रथा क्या है ?
जब मुल्क़ में अराजकता पैदा होकर सरदारों, उमरावों एवं जागीरदारों का दौर-दौरा (यानी 'जिसकी लाठी उसकी भैंस') शुरू हुआ तब से इन क्षत्रियों को उनकी ज़मीन न रहने के कारण उदर poshan के निम्मित्त जो भाई-चारे तथा दबाव से सत्तावान क्षत्रियों की सेवा करते थे उनको अन्याय से अपनी पैतृक संपत्ति मानकर पैतृक सेवक जाति बता करके भ्रान्ति फैलाई। यहाँ तक ही इस अन्याय की समाप्ति नहीं हुई षट्दर्शन को छोड़कर अन्य जितनी भी जातियां महाजन से लेकर धोबी चमार तक को सामंतवादी क्षत्रिय लोगों ने जबरन अपनी मिल्क़ियत मान कर एक ऐसी प्रथा क़ायम की थी जो वशी यानी चोटी कट प्रथा के नाम से प्रसिद्द थी जो कुछ दंड (हानि अर्थात मुआवजा) लेंगे उसे देकर जाऊँगा।  यही इसके विरुद्ध करूँगा तो आपका अपराधी बनूँगा। सामंतवाद के दबदबे एवं भय से इस प्रकार की लिखत को उस samay की अदालतें भी मानती थी और इस पर न्याय भी करती थीं।  इस प्रथा का प्रचलन सामंत काल से ही था यानी उन्नीसवीं सदी या अठारवीं शताब्दी में महाराजा मान सिंह जी के वक़्त भी था।
 
उदहारण : मुतों में मशहूर खानदान श्री अखैचन्द जी का है ये पहले ठाकुर आहोर का काम करते थे।  महाराजा मान सिंह जी ने इनकी योग्यता देखकर ठाकुर से मांग लिया और उनकी वशी निकलवाकर अपना मुसाहिक बनाया (मर्दुमशुमारी रिपोर्ट सन १८९१ ई. पेज ४१८) यह इसी वशी (चोटी कट) प्रथा का कठोरता का नमूना है की महाराजा मान सिंह जी ने श्री अखैचन्द जी को आला मुसाहिक बनाने के लिए ठाकुर से माँगा और वशी निकलवाई। यदि वशी निकलवाए बिना ले लेते तो अराजकता बढ़ जाती। 
 
चोटी कट प्रथा के पीछे सामन्तवादियों की सोच क्या थी ? 
चोटी कट : (वशी प्रथा) के अनुसार प्रत्येक सामंतवादी क्षत्रिय प्रत्येक जाति को अपनी मिल्क़ियत समझते थे और इसी के आधार पर भूमिहीन राजपूतों को इन क्षत्रियों (सामंतवादी) ने पैतृक सेवक जाति बता दास प्रथा क़ायम करनी चाहि और अप्रत्यक्ष रूप से लागू ही थी। इस षड़यंत्र का परिणाम यह है की मर्दुमशुमारी रिपोर्ट १८९१ ई. में उक्त सारे उदहारण जो पदों से आगे दिए गए इन्हें बढ़ा चढ़ा कर लिखा और इन्हें एक अलग जाति जो राजपूतों से बिलकुल भिन्न हो, करना चाहते थे।  इस षड़यंत्र में मक्कार अंग्रेजों ने इनका खूब साथ दिया था।  
 
इसी भेदभाव और उंच-नीच को आधार बना इन बेवक़ूफ़ सामन्तवादियों पर अंग्रेजों ने राज किया।  अन्यथा यह देश कभी अंग्रेजों का ग़ुलाम नहीं रहता। एक शक्तिशाली जाति को अंततः दो भागों में विभक्त होना ही पड़ा इसके लिए उस समय का वातावरण और परिस्थितियां ही ऐसी थीं, और वर्तमान में पूर्णतया सम्पूर्ण राजनीती में यह जाति- राजपूत व रावणा राजपूत के रूप में विभक्त हो चुकी जिसमें रावणा राजपूत जाति के प्रदेश स्तरीय इस समुदाय के सिरमौर श्री जसवंत सिंह सोलंकी हैं।  जिन्होनें अथक प्रयासों से आज़ादी के पहले और बाद में अलग अलग टुकड़ों में बंटी इस जाति को एक नाम रावणा के निचे एकत्रित किया आज सम्पूर्ण राजस्थान में यह जाति एकजुट होकर किसी भी सामाजिक एवं राजनितिक परिस्थितियों में अपना योगदान परिणात्मक रूप से दे सकती है।
 
मारवाड़ी कहावत : "तीजी पीढ़ी ठाकुर ने तीजी पीढ़ी चकुर ने" जब अच्छी जमीन जागीर मिल जाती तब यह पर्दा कायम कर राजपूत कहलाते व जिनकी जमीन जागीर नहीं रहती तब यह पर्दा हटा कर हलके राजपूत जाती के यानि चाकर कहलाते थे।  

कुछ महत्वपूर्ण एवं भ्रमित करने वाले शब्दों की वास्तविक परिभाषाएं -

रजपूत : मुता नैणसी द्वारा हस्तलिखती ख्यात जो वि. स. १७०० में लिखी गयी।  उसके अनुसार जो नौकरी, सिपहगिरी आदि साधारण कार्य करने वाले व सामान्य स्थिति वाले क्षत्रिय। 
दरोगा : यह एक 'पद' हुआ करता था।  जितने भी कारखाने (सरकारी विभाग) थे वे सब जिन वफादार लोगों के पास पीढ़ी दर पीढ़ी रहा करते थे उन्हें 'दरोगा' कहा करते थे इनकी देख रेख में दरीखाना (सभा भवन), तबेला, ताशखाना, सिलाईखाना, रसोड़ा, बग्घिखना, गउखाना, फीलखाना , शतुरखाना, फर्राश खाना, पालकी खाना तथा मर्दानी व जनानी ड्योढ़ी इत्यादि के कार्य वफादारी व ईमानदारी से हुआ करते थे।  इस प्रकार राज्य (हाउस होल्ड) में जितने भी विभाग हैं वे सब इनके (दरोगा) अधिकार में रहा करते थे और ये काम इनके पुश्तैनी होने से पीढ़ी दर पीढ़ी रहने से मक्कार लोगों ने इन गरीब राजपूतों को 'दरोगा' जाति से सम्बोधित किया।
हजूरी : हाज़रिये अर्थात हर वक़्त राजाओं की सेवा में उपस्थित रहने वाले हाज़रीन।  यह एक पदवी है। 
वज़ीर : मुख्या राज्य कार्यकर्ता को कहते हैं यह भी एक पदवी है। 
चाकर : यह मारवाड़ी भाषा का शब्द है जिसका मतलब नौकरी, हाली, सर्वेंट, सेवक, दास आदि के लिए राजा महाराजा अपनी भाषा में बातचीत या पत्रव्यवहार से सम्बोधित करने में लाते थे।  चाकरी (सेवा) करने वाली किसी भी जाति के हो सकते थे जैसे- जाट, माली, गुर्जर, नाई आदि ये सब चाकर ही कहे जाते थे अर्थात जो लोग चाकरी का मुआवजा (नौकरी का मूल्य अर्थात मासिक वेतन) नगद या वास्तु से लेते थे चाकर कहलाते थे। 
पासवान : यह एक दर्ज़ा या पदवी है, जो महिला रानियों या ठकुराणियों द्धारा इनके मनोरंजन के लिए खरीदी जाती या राजाओं - महाराजाओं द्धारा अपने पास बिन ब्याहे रखी जाती थी जिन्हें महारानियों के बाद का दर्ज़ा होता था व रानियों के ऊपर का दर्ज़ा प्राप्त होता था यह महिलायें व इनके पुत्र जिन्हें राजगद्दी मिलने पर राव राजा कहा जाता था यह राजा के utne ही निकट होते थे जितनी अन्य रानियां व उनके पुत्र।  'पासवान' शब्द महिलाओं के लिए ही उपयोगी था।  उनकी संतान भी राजा महाराजाओं की संतान कहलाती थी सिर्फ गद्दी पर बैठने या उत्तराधिकारी का अधिकार नहीं था।  लेकिन इन्हीं पासवानों या पड़दायतों की संतानों को ही 'गोद' लेकर जमीदारी, जागीरदारी बांटने के सेंकडों उदहारण हैं। 
मुता नैणसी जो की मारवाड़ के दीवान वि. स. १७०० में थे उन्होंने मारवाड़ निवासियों के घरों की गिनती वि. स. 1726 (सन 1659 ई.) में करायी थी। उस घर गिनती की तालिका में ब्राह्मणों से लेकर भंगी (हरिजन) के घरों तक का विवरण तालिका में लेकिन क्षत्रियों की पैतृक सेवक जाती जिन्हें दरोगा, हजुरी, वज़ीर, गोला, चाकर आदि से जाना जाता है का कहीं भी विवरण नहीं है यह उक्त नाम तो टॉड कृत राजस्थान या बाद में मर्दुमशुमारी रिपोर्ट-१९८१ ई. में जाती के रूप में सुनने को मिले जिन्हें अंग्रेजों का नया आविष्कार भी कहा जा सकता है वरन यह शब्द तो पदवी (दरोगा, हजुरी, वजीर, चाकर, पासवान, चेला, कामदार, रसालदार, जमादार) हुआ करती थी व गोला गोली को गाली के रूप में सम्बोधित किया जाता था।  
ख्वास : यह एक पदवी है जो राजा के ख़ास एवं निकटतम व्यक्ति को मिला करती थी वैसे यह पदवी 'नाई जाति' के लिए जो राजाओं के नाई थे उनके लिए थी। लेकिन सामान्यतः अन्य जाति के लोगों को भी यह पदवी राजा दिया करते थे जो बहुत काम लोगों को व्यक्तिशः मिली हो यह पदवी उनके किसी ख़ास कार्य के लिए ही मिलती थी। 
ख्वास पासवान : इन्हे छूट का चाकर भी कहा जाता था ये बे-रोक-टोक महलों में राजाओं महाराजाओं के पास चाहे वे पौढ़े हो, सोते हो, अरोगते हो, नहाते हो, चाहे किसी भी हालत में हो, जा सकते थे इसलिए 'ख्वास पासवान' यानी 'छूट का चाकर' कहलाते थे। 
बडारी (भंडारी) : राजाओं महाराजाओं के काल में अन्न व खाद्य सामग्री के कोठार हुआ करते थे उनके उचित देख-रेख के लिए यह कार्य भी अक्सर पुश्तैनी ही किया जाता था।  इसमें कोई भी जाति का व्यक्ति हो सकता था अधिकतर वैश्य या राजपूत ही होते थे जिन्हें बाद में 'कोठारी' भी कहा जाता था या 'भंडारी' भी कहते थे इन्हीं शब्दों के प्रचलन से भंडारी से बडारी शब्द का जन्म हुआ वैसे इस कार्य को उचित दर्ज़े का माना जाता था।
डाबड़ी : मारवाड़ व ढूंढाड़ में 'डाबड़ी' कंवारी लड़की को कहते हैं। 
परडायत : राजरानियों व ठकुरानियों द्धारा ख़रीदे जाने वाली वह कुंवारी लडकियां जो किसी भी जाति- माली, ब्राह्मणी, जाटणी, सीरवन आदि की होती थी बाद में इनको गाने बजाने का काम  सिखाया जाता था।  एक-एक रानी के पास 40 या 50 कुंवारी लडकियां होती थी जिन्हें मारवाड़ में तालीवालियें, जयपुर में अरवाडे, बूंदी में धाया श्री कहते थे।  इनमे से कोई राजाओं को पसंद आने पर उन्हें पावों में सोना पहनने को मिल जाता था तो ये 'परडायत' कहलाती थी तब इनका दर्ज़ा रानी के पीछे माना जाता था। यदा कदा इनमे से किसी ख़ास को जो राजाओं के पास होती बाद में इन्हे पावों में जड़ाऊ जेवर सोने के पहनने को मिलते तो यह 'पासवान' कहलाती थी।  इनके दर्ज़ा रानियों के ऊपर व महारानियों के बाद होता था।  इनके पुत्रों को 'राव राजा' का खिताब दिया जाता था। 
पावों में सोना पहनना : राजा महाराजाओं के काल में वही औरतें पावों में सोना पहनती थीं जो उनकी महारानी या रानियां हों, बाद बिन ब्याहे किसी कुंवारी लड़की को राजा बनाते थे तो वह बाद में राजा के पास परदे में अन्य रानियों की तरह रहती तथा उस पर पर्दा कर दिया जाता था।
दरोगण : दरोगा की स्त्री, जो सब प्रकार की सेवा करने वाली अन्य साधारण स्त्रियों की अध्यक्षता करने वाली होती थी। 
बडारण : भंडारे के कार्य करने वाली स्त्री को भंडारण या बडारण कहते थे। 
गोला गोली : यह जाति नहीं बल्कि कर्म है, विदेशी भाषा में गोल उसे कहते हैं जो बेईमानी करता है छली-कपटी होता है, नमक हराम होता है, बेवफा होता है, चोरी चकारी करता है, उपकार भुला के अपकार करता है और बिना किसी कारण के किसी को हानि पहुंचाता है।  जिसके यह कर्म होते हैं वही गोला कहलाता है।  चाहे वे किसी भी जाती के स्त्री पुरुष हों। यह एक गाली है। 
जब उन्नीसवीं शताब्दी में rajputane में विदेशियों का आवागमन हुआ तब उन लोगों में इस देश के निवासियों के बाबत ज्ञान पैदा करने के अभिप्राय से उनके जातीय रिवाज़ व मुल्क़ि रिवाजों की बाबत छानबीन की तब दुर्भाग्यवश इन लोगों ने झूठे कवियों तथा मक्कार लेखकों की कृतियों को आधार मान कर जानबूझकर कई जातियों की मान-हानि की।  उन लेखकों में प्रथम स्थान कर्नल जेम्स टॉड का है।  यह सन १७९९ की १७ मार्च को २७ वर्ष की आयु में भारत आये, ९ जनवरी १८०० ई. को गोरी रेजिमेंट नंबर २ में भर्ती हुए और 1826 तक सर्विस में रह कर उन्होंने कर्नल पद प्राप्त किया।  उसके पश्चात १८१८ ई. में राजपूताने के पॉलिटिकल एजेंट नियुक्त होकर फरवरी सन १८१८ में उदयपुर व अक्टूबर १८१८ ई. जोधपुर आये।  सन १८२२ ई. में वापस विलायत चले गये। 
बाद में इन्हीं टॉड महोदय ने संदिग्द सामग्री को आधार मान कर क्षत्रियों की संतान को क्षत्रिय होते हुए भी राजपूतों को मिश्रित जाती माना और इस वर्ग को गोला-चाकर लिखा व अपनी अज्ञानता का प्रमाण दिया।  इन्हीं के आधार पर अन्य अंग्रेज लेखकों ने कई गजेटियर लिखे व इसके पश्चात भारतीय लेखकों ने भी इन्हीं को आधार मानकर अपनी मूर्खता का प्रमाण दिया और १८९१ ई. में तैयार हो रही 'मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट-१८९१' या मर्दुमशुमारी रिपोर्ट में अपने लेख छाप डाले। 

रावणा राजपूत की अवधारणा :

प्राचीनतम आर्य संस्कृति के क्षत्रिय वर्ण का मुख्य दायित्व सुरक्षा एवं शासन करना था। सुरक्षा की दृष्टि से शत्रुओं से युद्ध करके राज्य के अस्तित्व को बनाये रखना और प्रजा की रक्षा करना  तथा शासन की दृष्टि से प्रजा की सेवा करना क्षत्रियों का परम कर्तव्य था।  ये ही क्षत्रिय वर्ण के लोग अनगिनत जातियों में विभक्त हो गए। राजपूत जाति उनमें से एक है। आर्य संस्कृति के चारों वर्ण जब भिन्न भिन्न जातियों में विभाजित होने लगे, तब हिन्दू संस्कृति का  प्रादुर्भाव हुआ।  आज जाति व्यवस्था हिन्दू धर्म के प्रमुख लक्षणों में से एक महत्वपूर्ण लक्षण है। जिसमे ऊँच-नीच छूत अछूत जैसी बुराईयाँ व्याप्त है।  कालांतर में राजपूत जाती में भी अनेक जातियां  निकली। उस व्यवस्था में रावणा राजपूत नाम की जाति राजपूत जाति में से निकलने वाली अंतिम जाती है, जिसकी पहचान के पूर्वनाम दरोगा, हजुरी वज़ीर     आदि पदसूचक नाम है। राजपूत जाति से अलग पहचाने जाने वाली इस जाति प्रारंभिक काल मुग़ल शासन है।  भारत में अंग्रेजी शासन के उस काल में जबकि अनेक समाज सुधार आंदोलन चल रहे थे और देश में स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस का आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा था, तब बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में आर्य समाज की विचारधारा और कार्यकलापों से ओतप्रोत इस जाति के बुद्धिजीवी वर्ग में अरबी और फ़ारसी भाषा के शब्दों से निज जाति की पहचान कराने वाले उपरोक्त जातिसूचक नामों को नकार दिया था और विशुद्ध हिंदी भाषा रावणा राजपूत नाम से इस जाति पहचान कराने का अभियान शुरू कर दिया था।  रावणा शब्द का अर्थ राव+वर्ण से है अर्थात योद्धा जाति यानी की राजाओं व सामंतों के शासन की सुरक्षा करने वाली एकमात्र जाति जिसे रावणा राजपूत नाम से जाना जाए। इस नाम की शुरुआत तत्कालीन मारवाड़ की रियासत के रीजेंट सर प्रताप सिंह राय बहादुर के संरक्षण में जोधपुर नगर के पुरबियों के बॉस में सन १९१२ में हुई है।  जिस समय इस जाति के अनेकानेक लोग मारवाड़ रियासत के रीजेंट के शासन और प्रशासन में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभा रहे थे।  
 
स्मरण रहे की सर प्रताप सिंह राय बहादुर आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती से बहुत प्रभावित थे और आर्य समाज जोधपुर के प्रथम संस्थापक प्रधान थे।  आज यह नवसृजित नाम मारवाड़ की सीमाओं को लांग कर राजस्थान के अनेक ज़िलों में प्रचलित है जिसकी व्यापकता की दृष्टि से काका कालेलकर आयोग और मंडल आयोग ने भी पुष्टि की है। और केंद्र तथा राज्य सरकार ने भी अन्य पिछड़ा वर्ग की सूचि में सम्मिलित किया है।  इस नाम से इस जाति की नयी पुरानी पहचान छुपी हुई है।  सच माने में यह जाति शैक्षणिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक, आर्थिक और राजनितिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ी हुई जाति है।  
 
मध्ययुगीन राजस्थान के जीवन में शासक व सामंतों के अलावा शासन व प्रशासन में कुछ महत्वपूर्ण ओहदेदारों की भूमिका भी थी, जिनके ओहदों को हम दरोगा, हजुरी, वज़ीर, कामदार, हवलदार, फौजदार, कोठारी व भंडारी    आदि पदों से जान सकते हैं। 
 
जनरल टॉड कृत राजस्थान गजेटियर व बाद में स्वार्थी व मक्कार लेखकों एवं इन्हीं के आधार पर तैयार 'मारवाड़ जान गणना रिपोर्ट-१८९१ ई' या मर्दुमशुमारी में इन पिछड़े राजपूतों पर निम्नानुसार शब्दों के साथ मन गढंत व ईर्ष्या द्धेष से से तैयार परिभाषाओं का समावेश कर इन्हें राजपूत (क्षत्रिय) वंश से अलग थलग करने के प्रयास किया गया लेकिन यह पूर्ण सफल नहीं हो पाये।