Tuesday, August 5, 2014

कुछ महत्वपूर्ण एवं भ्रमित करने वाले शब्दों की वास्तविक परिभाषाएं -

रजपूत : मुता नैणसी द्वारा हस्तलिखती ख्यात जो वि. स. १७०० में लिखी गयी।  उसके अनुसार जो नौकरी, सिपहगिरी आदि साधारण कार्य करने वाले व सामान्य स्थिति वाले क्षत्रिय। 
दरोगा : यह एक 'पद' हुआ करता था।  जितने भी कारखाने (सरकारी विभाग) थे वे सब जिन वफादार लोगों के पास पीढ़ी दर पीढ़ी रहा करते थे उन्हें 'दरोगा' कहा करते थे इनकी देख रेख में दरीखाना (सभा भवन), तबेला, ताशखाना, सिलाईखाना, रसोड़ा, बग्घिखना, गउखाना, फीलखाना , शतुरखाना, फर्राश खाना, पालकी खाना तथा मर्दानी व जनानी ड्योढ़ी इत्यादि के कार्य वफादारी व ईमानदारी से हुआ करते थे।  इस प्रकार राज्य (हाउस होल्ड) में जितने भी विभाग हैं वे सब इनके (दरोगा) अधिकार में रहा करते थे और ये काम इनके पुश्तैनी होने से पीढ़ी दर पीढ़ी रहने से मक्कार लोगों ने इन गरीब राजपूतों को 'दरोगा' जाति से सम्बोधित किया।
हजूरी : हाज़रिये अर्थात हर वक़्त राजाओं की सेवा में उपस्थित रहने वाले हाज़रीन।  यह एक पदवी है। 
वज़ीर : मुख्या राज्य कार्यकर्ता को कहते हैं यह भी एक पदवी है। 
चाकर : यह मारवाड़ी भाषा का शब्द है जिसका मतलब नौकरी, हाली, सर्वेंट, सेवक, दास आदि के लिए राजा महाराजा अपनी भाषा में बातचीत या पत्रव्यवहार से सम्बोधित करने में लाते थे।  चाकरी (सेवा) करने वाली किसी भी जाति के हो सकते थे जैसे- जाट, माली, गुर्जर, नाई आदि ये सब चाकर ही कहे जाते थे अर्थात जो लोग चाकरी का मुआवजा (नौकरी का मूल्य अर्थात मासिक वेतन) नगद या वास्तु से लेते थे चाकर कहलाते थे। 
पासवान : यह एक दर्ज़ा या पदवी है, जो महिला रानियों या ठकुराणियों द्धारा इनके मनोरंजन के लिए खरीदी जाती या राजाओं - महाराजाओं द्धारा अपने पास बिन ब्याहे रखी जाती थी जिन्हें महारानियों के बाद का दर्ज़ा होता था व रानियों के ऊपर का दर्ज़ा प्राप्त होता था यह महिलायें व इनके पुत्र जिन्हें राजगद्दी मिलने पर राव राजा कहा जाता था यह राजा के utne ही निकट होते थे जितनी अन्य रानियां व उनके पुत्र।  'पासवान' शब्द महिलाओं के लिए ही उपयोगी था।  उनकी संतान भी राजा महाराजाओं की संतान कहलाती थी सिर्फ गद्दी पर बैठने या उत्तराधिकारी का अधिकार नहीं था।  लेकिन इन्हीं पासवानों या पड़दायतों की संतानों को ही 'गोद' लेकर जमीदारी, जागीरदारी बांटने के सेंकडों उदहारण हैं। 
मुता नैणसी जो की मारवाड़ के दीवान वि. स. १७०० में थे उन्होंने मारवाड़ निवासियों के घरों की गिनती वि. स. 1726 (सन 1659 ई.) में करायी थी। उस घर गिनती की तालिका में ब्राह्मणों से लेकर भंगी (हरिजन) के घरों तक का विवरण तालिका में लेकिन क्षत्रियों की पैतृक सेवक जाती जिन्हें दरोगा, हजुरी, वज़ीर, गोला, चाकर आदि से जाना जाता है का कहीं भी विवरण नहीं है यह उक्त नाम तो टॉड कृत राजस्थान या बाद में मर्दुमशुमारी रिपोर्ट-१९८१ ई. में जाती के रूप में सुनने को मिले जिन्हें अंग्रेजों का नया आविष्कार भी कहा जा सकता है वरन यह शब्द तो पदवी (दरोगा, हजुरी, वजीर, चाकर, पासवान, चेला, कामदार, रसालदार, जमादार) हुआ करती थी व गोला गोली को गाली के रूप में सम्बोधित किया जाता था।  
ख्वास : यह एक पदवी है जो राजा के ख़ास एवं निकटतम व्यक्ति को मिला करती थी वैसे यह पदवी 'नाई जाति' के लिए जो राजाओं के नाई थे उनके लिए थी। लेकिन सामान्यतः अन्य जाति के लोगों को भी यह पदवी राजा दिया करते थे जो बहुत काम लोगों को व्यक्तिशः मिली हो यह पदवी उनके किसी ख़ास कार्य के लिए ही मिलती थी। 
ख्वास पासवान : इन्हे छूट का चाकर भी कहा जाता था ये बे-रोक-टोक महलों में राजाओं महाराजाओं के पास चाहे वे पौढ़े हो, सोते हो, अरोगते हो, नहाते हो, चाहे किसी भी हालत में हो, जा सकते थे इसलिए 'ख्वास पासवान' यानी 'छूट का चाकर' कहलाते थे। 
बडारी (भंडारी) : राजाओं महाराजाओं के काल में अन्न व खाद्य सामग्री के कोठार हुआ करते थे उनके उचित देख-रेख के लिए यह कार्य भी अक्सर पुश्तैनी ही किया जाता था।  इसमें कोई भी जाति का व्यक्ति हो सकता था अधिकतर वैश्य या राजपूत ही होते थे जिन्हें बाद में 'कोठारी' भी कहा जाता था या 'भंडारी' भी कहते थे इन्हीं शब्दों के प्रचलन से भंडारी से बडारी शब्द का जन्म हुआ वैसे इस कार्य को उचित दर्ज़े का माना जाता था।
डाबड़ी : मारवाड़ व ढूंढाड़ में 'डाबड़ी' कंवारी लड़की को कहते हैं। 
परडायत : राजरानियों व ठकुरानियों द्धारा ख़रीदे जाने वाली वह कुंवारी लडकियां जो किसी भी जाति- माली, ब्राह्मणी, जाटणी, सीरवन आदि की होती थी बाद में इनको गाने बजाने का काम  सिखाया जाता था।  एक-एक रानी के पास 40 या 50 कुंवारी लडकियां होती थी जिन्हें मारवाड़ में तालीवालियें, जयपुर में अरवाडे, बूंदी में धाया श्री कहते थे।  इनमे से कोई राजाओं को पसंद आने पर उन्हें पावों में सोना पहनने को मिल जाता था तो ये 'परडायत' कहलाती थी तब इनका दर्ज़ा रानी के पीछे माना जाता था। यदा कदा इनमे से किसी ख़ास को जो राजाओं के पास होती बाद में इन्हे पावों में जड़ाऊ जेवर सोने के पहनने को मिलते तो यह 'पासवान' कहलाती थी।  इनके दर्ज़ा रानियों के ऊपर व महारानियों के बाद होता था।  इनके पुत्रों को 'राव राजा' का खिताब दिया जाता था। 
पावों में सोना पहनना : राजा महाराजाओं के काल में वही औरतें पावों में सोना पहनती थीं जो उनकी महारानी या रानियां हों, बाद बिन ब्याहे किसी कुंवारी लड़की को राजा बनाते थे तो वह बाद में राजा के पास परदे में अन्य रानियों की तरह रहती तथा उस पर पर्दा कर दिया जाता था।
दरोगण : दरोगा की स्त्री, जो सब प्रकार की सेवा करने वाली अन्य साधारण स्त्रियों की अध्यक्षता करने वाली होती थी। 
बडारण : भंडारे के कार्य करने वाली स्त्री को भंडारण या बडारण कहते थे। 
गोला गोली : यह जाति नहीं बल्कि कर्म है, विदेशी भाषा में गोल उसे कहते हैं जो बेईमानी करता है छली-कपटी होता है, नमक हराम होता है, बेवफा होता है, चोरी चकारी करता है, उपकार भुला के अपकार करता है और बिना किसी कारण के किसी को हानि पहुंचाता है।  जिसके यह कर्म होते हैं वही गोला कहलाता है।  चाहे वे किसी भी जाती के स्त्री पुरुष हों। यह एक गाली है। 
जब उन्नीसवीं शताब्दी में rajputane में विदेशियों का आवागमन हुआ तब उन लोगों में इस देश के निवासियों के बाबत ज्ञान पैदा करने के अभिप्राय से उनके जातीय रिवाज़ व मुल्क़ि रिवाजों की बाबत छानबीन की तब दुर्भाग्यवश इन लोगों ने झूठे कवियों तथा मक्कार लेखकों की कृतियों को आधार मान कर जानबूझकर कई जातियों की मान-हानि की।  उन लेखकों में प्रथम स्थान कर्नल जेम्स टॉड का है।  यह सन १७९९ की १७ मार्च को २७ वर्ष की आयु में भारत आये, ९ जनवरी १८०० ई. को गोरी रेजिमेंट नंबर २ में भर्ती हुए और 1826 तक सर्विस में रह कर उन्होंने कर्नल पद प्राप्त किया।  उसके पश्चात १८१८ ई. में राजपूताने के पॉलिटिकल एजेंट नियुक्त होकर फरवरी सन १८१८ में उदयपुर व अक्टूबर १८१८ ई. जोधपुर आये।  सन १८२२ ई. में वापस विलायत चले गये। 
बाद में इन्हीं टॉड महोदय ने संदिग्द सामग्री को आधार मान कर क्षत्रियों की संतान को क्षत्रिय होते हुए भी राजपूतों को मिश्रित जाती माना और इस वर्ग को गोला-चाकर लिखा व अपनी अज्ञानता का प्रमाण दिया।  इन्हीं के आधार पर अन्य अंग्रेज लेखकों ने कई गजेटियर लिखे व इसके पश्चात भारतीय लेखकों ने भी इन्हीं को आधार मानकर अपनी मूर्खता का प्रमाण दिया और १८९१ ई. में तैयार हो रही 'मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट-१८९१' या मर्दुमशुमारी रिपोर्ट में अपने लेख छाप डाले। 

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